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________________ R -525- K KAR ANAAAA- n बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४१६ धन भयो हानि । सोऊ मिलें अब ही सयान ॥१४५॥ कछु काल व्यतीत भये समस्त । है अर्थ लाभ तुमको प्रशस्त ॥ यह जान हिये निरधार वीर । भजि श्रीपति पद सब टरै पीर ॥ ___ तअहं । तत्ता अकार हंकार आय । हे पूछक तोसों इमिहै कहाय । दिनरात तोहि धनहेत चाह । मनमें यह वर्तत है। * कि नाह ॥ १४७ ॥ सो पुन्य बिना कहु केम होय । हैं दिन • तेरे अति नष्ट होय ॥ कछु दिवस बितीत भये प्रमान । धन लाभ होय तोको निदान ॥ १४८ ॥ तातै जो सुख चाहहु । विनीत । तो पुन्यहेत कर जतन मीत ।। जिनराज पदाम्बु* जग होय । अन अन्यशरण है सेव सोय ॥ तअत। यह तमत कहत फल प्रगट आय । सुनि । १ पूछक तै मन मुदित काय । मनवांछित हो सो होय । सिद्ध । परदेशतीर्थयात्रा प्रसिद्ध ॥ १५० ॥ इक मास * व्यतीत भये प्रमान । तोहि अर्थ परापत द्वै सुजान । अरु * तन निरोगजुत पुष्ट होय । आनन्द लहै संशय न कोय ॥ । 'तरा । यह तरअ कहत डका बजाय । धनचिन्ता तेरे मन वसाय॥तै कीन चहत परदेश गौन । यह जातहि कारज सिद्ध । तौन ॥१५२।। बहु वस्त्र आमरन अर्थ, आद। तिय तनय लाभ है है अवाद ।। पितु मातु बन्धुसो मिलन होय । यह * गुरुसेवा फल जान सोय ॥१५३॥ तातै नित प्रति चतुर । * जीव । सुखकारन सेवो प्रभु सदीव । कल्यानखान भगवान एक । तिनको सुमिरौ तजि कुमति टेक ॥१५४॥ KRA-KARKITSARS*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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