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________________ वृहज्जैन वाणीसंग्रह I रहं । हंजुग आदिरकार कर, सुनिये पूछनहार । अशुभ उदय फल अशुभ है, जानहु निज उर धार ॥७७॥ मति विश्वास करो हिये, मित्र बन्धु जिय जानि । शत्रु होय ये परिनवहि, करहिं वित्तकी हानि ॥ ७८ ॥ धन चिन्ता नित करत हो, सो सुपनेहुँ नहिं होइ । धरम चिन्ति कुल देव भज, तातै कछु सुख जोड़ ॥ ७९ ॥ रहते । रहं तासुपर प्रगट त, सुनि फल पूछनहार । याको फल मैं कहा कहीं, सब सुखको दातार ॥ ८० ॥ विद्या लाभ कवित्तता, सुफल लाभ व्यवहार । बनिता सुतको है, द्रव्यलाभ व्यापार ॥ ८१ ॥ मित्रबन्धु बसनाभरण | सहित समागम होइ । चहहु सुखित परिवार सों, कुलदेवी/ कृत जोइ ॥ ८२ ॥ रतअ । रतअ वरन पांसा कहत, तुव सम्मुख सौभाग | अरथागम कल्याणकर, असन सुखद अनुराग ॥ ८३॥ मंत्रजन्त्र औषधिविषै, सकल सिद्ध न होइ । चित चिन्तित पुत्रादि सुख, निश्चय हैं सोइ ||८४|| ४१२ MAAAAA AAAAAAN AAAAI रतर | रतर वरन पासा कहत, सुनि पूछक गहि मौन | उद्यममें लक्ष्मी बसै, ज्यों पंखे में पौन ॥ ८५ ॥ तातैं उद्यम करहु तुम, अरथलाभ तहं होइ । तनय धरनि धरनी मिलै, नृप सनमाने सोय ॥ ८६ ॥ वसन मिले घोड़ा मिले, अनायास है काज | शुभ मंगल तोहि सर्वदा, सेये श्रीजिनराज ॥ ८७ ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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