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________________ * RK-52* ५०६ वृहज्जैनवाणीसंग्रह जानो हे उदार । बहु भित्र मिलें भू वस्त्र ताहिं । अरु पुत्र । पौत्र द्वै सदन माहिं ॥ रोगीको रोग विनाश होय । कर ग्रहको निग्रह भि होय ॥ जो मित्र बन्धु परदेश होय । घर । आवै अति मन मुदित सोय ॥१२॥ कुलवृद्धि तथा सजन । * महान । तिनसों नित प्रीति बढ़े सयान। दिन दिन अति का लाभ मिले पुनीत । यह प्रश्न केवली कहत-प्रीति ॥१३॥ . अरअ । दुइ अकारके मध्य रकार । पांमा परै तासु सुवि चार ॥ उत्तम फलकारी यह होत । नित नव मंगल होत उ-1 दोत ॥१४॥ पूरव जो धन गयो नसाय । सो सब तोहि मि। लेगो आय । राजा करहिं बहुत सनमान, बसन भूमि हय * देवहि दान ॥१५॥ भ्राता मित्र समागम होहि । सब विधि । सदनमहोच्छ्व तोहि । सकल पापको होय विनाश । धर्मवृद्धि नित कर प्रकाश ॥१६॥ , अरर । जो अरर प्रगटै वरन । तो सकल मंगल करन।। * धनलाभ सूचक येह । दशदिश विमल जस तेह ॥१७॥ जहं जाय वह मतिवंत । तहं लहै पूजा संत ॥ है इष्टवन्धु मिलाप । उद्यम विपै श्री आप ॥१८॥ जल चोर पावक मरी। ये सकहिं नहिं कछु करी। सब शत्रु कीजै हान । प्रगटै स कल कल्याण ॥१९॥ जिन धरमके परभाव। यह जान है। * सद्भाव । उत्तम कहत फल अङ्क । उत्तम गयो निःशंक ।२० * अरहं । अरहं परे जो वरन । सौभाग्यसम्पतिकरन । तो जो मनोरथ होइ । अनयास पूजै सोय ॥२१॥ कछु क्लेश ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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