SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४०३ निजमांहि लोक अलोक गुन परजाय प्रतिबिंबित थये । रहि हैं अनंतानंतकाल यथा तथा शिव परनये ॥ धनि धन्य हैं जे जीव नरभव पाय यह कारज किया । तिनही अनादी भ्रमन पंचमकार तजि वर सुख लिया ॥ १३ ॥ मुख्योपचार दुभेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं । अरु धरैगे ते शिव लहैं तिन सुजस जल जगमल हरै || इमि जानि आलस हानि साहस ठानि यह सिख आदरो । जबलों न रोग जरा गहै तबलों जगत निज हितकरो || १४ || यह राग आग दहै सदा तातै समामृत सेइये | चिर भजे विषय कषाय अब तौ त्याग निजपद बेइये | कहा रच्यो परपदमें न तेरो पद यहै क्यों दुख सहै । अब दौल, होउ सुखी स्वपद रचि दाव मत चूको यहै ॥ १५ ॥ दोहा - इक नवे वसु इक वर्षकी, तीज शुकल वैशाख । करच तच्च उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१६॥ लघुधी तथा प्रमादतें, शब्द अर्थकी भूल । सुधी सुधार पढो सदा, जो पावो भवकूल ॥ १७ ॥ इति श्री पं० दौलतरामजीकृत छहढाला समाप्त २१४- अरहन्तपासा केवली । काशी निवासी कविवर बृन्दावनदासजी कृत । दोहा - श्रीमत वीर जिनेशपद, बन्दों शीस नवाय । गुरु गौतमके चरन नमि, नमों शारदा माय ॥ १ ॥ श्रेणिक नृपके पुण्यतें भाषी गणधर देव | जगतहेत अरहन्त यह, नाम
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy