SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Re* *REKKRKE बृहज्जैनवाणीसंग्रह ...... Vvvvvvvvvvvvvvv wwwwwwwwwwwwwwwwww * पकवान नाना भांति चातुर, रचित शुद्ध नये नये । । सदमिष्ट लाडू आदि भर बहु,पुरटके थारालये म नैवेद्य कलधौत दीपक जडित नाना, भरित गोघृतसारसों। अति ज्वलित जगमगजोति जाकी, तिमिरनाशनहारसों ।मादीपं॥ दिक्चक्र गंधित होत जाकर, धूप दशअंगी कही । सो लाय मनवचकाय शुद्ध, लगायकर खेऊ सही ॥मन्वा०॥ धूपं ॥ * वर दाख खारक अमित प्यारे, मिष्ट चुष्ट चुनायके । द्रावडी । दाडिम चारु पुंगी, थाल भरभर भायके ॥मन्वा० ॥फलं। जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु वर, दीप धूप सु लावना। फल * ललित आठों द्रव्य मिश्रित, अर्थ कीजे पावना ॥म०॥अर्थ।। अथ जयमाला। छंद त्रिभंगी-बंदू ऋषि राजा, धर्म जहाजा, निज पर काजा करत भले । करुणाके धारी, गगन विहारी, दुख अपहारी, भरम दले ॥ * काटत जमफंदा, भविजनवृन्दा, करत अनंदा चरणनमें । जो पूजै ध्याचे, मंगल गा३, फेर-न आवै भववनमें ॥१॥ छंद पद्धरी-जय श्रीमनु मुनिराजा महंत । स थावरकी। रक्षा करंत ॥ जय मिथ्यातम नाशक पतंग । करुणारस पूरित अंग अंग ॥१॥ जय श्रीस्वरमनु अकलंकरूप। पद में सेव करत नित अमर भूप ॥ जय पंच अक्ष जीते महान ! तप * तपत देह कंचन समान ॥२॥ जय निचय सप्त तत्वार्थभास।। तप रमातनौ तनमें प्रकाश ॥ जय विषयरोध संबोधमान ।।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy