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________________ * ARAMR८८-45-FINAKKARK-* वृहज्जैनवाणीसंग्रह wuuuuuuuuuuuwwuuuuuuuuuu wwwwwwwwwwwww ३ का नवद्यः । शश्वदधीतो मनसि लभते, मुक्तिनिकेतं विभववर १ ते ॥३२॥ इति द्वात्रिंशतिवृत्तः, परमात्मानमीक्षते । योऽनन्यगतचेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययं ॥३३॥ ५-सामायिक पाठ भाषा। १ प्रतिक्रमण कर्म। काल अनंत भ्रम्यो जगमें सहिये दुख भारी । जन्मम* रण नित किए पापको है अधिकारी । कोटि भवांतरमाहिं मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य आज मैं भयो योग मिलियो • सुखदायक ॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब । * ते सब मन-वच-काय-योगकी गुप्ति विना लभ ॥ आप के समीप हजूर माहि मैं खड़ो खड़ो सब । दोष कहूं सो सुनो * करो नठ दुःख देहि जव ॥ २॥ क्रोधमानमदलोभमोह* मायावशि पानी । दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ विना प्रयोजन केंद्रिय वितिचउपंचेंद्रिय । आप * प्रसादहि मिटै दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥ ३ ॥ आपसमें इकठौर थापकरि जे दुख दीने । पेलि दिये पगतलैं दावि* करि प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीव जिते तिन सबके । नायक । अरज करूं मै सुनो दोष मेटो दुखदायक ॥ ४॥ अंजन अदिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये ते क्षमा क्षमा किय । मेरे जे अब दोष भये ते । १स्त्री सामायिक करे तो खड़ी खड़ी सब, ऐसा पाठ बोलना चाहिये ।। *HARKHAK-SHIKRAKeki
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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