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________________ *-*--*- *- *- *-* -* -* १.२३० वृहज्जैनवाणीसंग्रह राजू उतंग चौदह प्रमान । लखि स्वयंसिद्ध रचना महान ।। तामध्य जीव त्रस आदि देय। निज थान पाय । तिष्ठं भलेय ॥ ९॥ लखि अधो भागमें श्वभ्रथान । गिन । सात कहे आगम प्रमान ॥ षट थानमाहिं नारकि बसेय ।। * इक श्वभ्रभाग फिर तीन भेय ।। १०॥ तसु अधोभाग। नारिक रहाय । फुनि ऊर्ध्वभाग द्वय थान पाय ॥ वस रहे है । भवन व्यंतर जु देव । पुर हर्म्य छजै रचना स्वमेव ॥ ११ ॥ सिंह थान गेह जिनराज भाख । गिन सातकोटि बहतरि जु । लाख ॥ ते भवन नमों मनवचनकाय । गति वभ्रहरनहारे । * लखाय ॥ १२ ॥ पुनि मध्यलोक गोला अकार । लखि । का दीप उदधि रचना विचार ॥ गिन असंख्यात भाखे जु संत लखि संभुलन सबके जु अंत ॥ १३ ॥ इक राजुव्यासमैं सर्व जान । मधिलोक तनों इह कथन मान ।। सवमध्यदीप जंबू गिनेय । त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥ १४ ॥ इन * तेरहमै जिनधाम जान । शतचार अठावन है प्रमान ॥ खग ॥ देव असुर नर आय आय । पद पूज जांय शिर नाय नाय ॥ १५ ॥ जय उप्रलोकसुर कल्पवास । तिहें थान छैजै जिन भवन खास ॥ जय लाख चुरासीपै लखेय । जय सह ससत्याणव और ठेय ॥ १६ ॥ जय वीसतीन फुनि जोड * देय। जिनभवन अकीर्तम जान लेय ॥ प्रतिभवन एक रचना कहाय । जिनबिंब एकसत आठ पाय ॥ १७॥ * शतपंच धनुष उन्नत लसाय । पदमासनजुत पर ध्यान ।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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