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________________ * KAREK KA * १२१८ वृहज्जैनवाणीसंग्रह उत्तम गंगाजल, शुचि अतिशीतल प्राशुक निर्मल गुनगायो॥ प्रभु अन्तरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोप हो। यह अरज सुनीजै, ढील न कीजै, न्याय करीजै दया धरो॥ ओं ही अष्टादशदोपरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेभ्यो जलं नि ।। अब तपत निरन्तर, अगनिपटन्तर, मो उर अन्तर। * खेद करयो । लै बावन चन्दन, दाहनिकन्दन, तुमपदवन्दन । * हरष धरयो ॥ प्रभु० ॥ चंदनं ॥२॥ औपुन दुखदाता, कहो न जाता, मोहि असाता बहुत करै । तन्दुल गुनमण्डित, अमल अखंडित, पूजत पंडित, प्रीति धरै ॥ प्रभु० ॥ अक्षतान् ॥३॥ र सुरनरपशुको दल, काम महावल, वात कहत छल माह लिया। ताके शर लाऊ, फूल चढ़ाऊं, भक्ति बढ़ाऊ, खोल * हिया ॥ प्रमु०॥ पुष्पं ॥४॥ सब दोषनमाहीं, जासम नाहीं, भूव सदाहीं, मो लागे । सद घेवर वावर, लाडू बहुधर, थार कनक भर, तुम आगै॥ ॐ प्रमु०॥ नैवेद्य ॥५॥ * अज्ञान महातम, छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम, दुख . पावै। तम मेटनहारा, तेज अपारा, दीप सँवारा, जस गावै ॥ प्रभु०॥ दीपं ॥६॥ * इह कर्म महावन, भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत। है। कृष्णागरुधूपं, अमलअनूपं, सिद्धस्वरूपं ध्यावत है ॥ प्रभु०॥ धूपं ॥ ७॥ ** *KRKKH e
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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