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________________ *RAK AS- RR* vvvvvvvvvvv वृहज्जैनवाणीसंग्रह २०६ अनंत मुनीश्वरपूज्य विहाव ॥ सदोदय विश्वमहेश विमोह । . प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥७॥ विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र । परापरशंकरसार वितन्द्र ॥ विकोप विरूप विशंक विमोह। प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥ ८॥जरामरणोज्झित। वीतविहार । विचिंतित निर्मल निरहंकार ॥ अचिंत्यचरित्र विदर्प विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥ ९॥ विवर्ण विगंध विमान विलोभ । विमाय विकाय विशब्द विशोभ । अनाकुल केवल सर्व विमोह । प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह॥ पत्ता-असमसमयसारं चारुचैतन्यचिह्न, परपरणतिमुक्तं * पद्मनंदींद्रवंद्यं । निखिलगुणनिकेत सिद्धचक्रं विशुद्धं, स्मरति । नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिं ॥ ११॥ ___ ओं ही सिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा । अथाशीर्वाद। अडिल्लछंद । ___ अविनाशी अविकार परमरसधाम हो । समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्धबोध अविरुद्ध अनादि अनंत हो।। जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो ॥१॥ ध्यान अ* गनिकर कर्म कलंक सबै दहे । नित्य निरंजनदेव सरूपी है रहे । ज्ञायकके आकार ममत्व-निवारिक, सो परमातम सिद्ध न सिर नायकें ॥२॥ दोहा-अविचलज्ञानप्रकाशतें, गुण- अनंतकी खान। * ध्यान धेरै सो पाइये, परम सिद्ध भगवान ॥ ३ ॥ * * 14
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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