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________________ *-- - - * www.or....... wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ------ -* वृहज्जैनवाणीसंग्रह १८३ । भयो, जैसें जलविन भीन । जन्मजरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥ पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव । अंजनसे तारे कुधी, जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाव भवदधिविष, तुम प्रभु पार करेय । खेवटिया * तुम हो प्रभू, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ रागसहित जगर में रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतराग भेटयो अरूँ, मेटो । राग कुटेव ॥१४॥कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच। अज्ञान | आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान॥१५॥ तुमको पूजै सुरपती, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग्य * मेरो भयो, करनलग्यो तुम सब सेव ॥१६॥ अशरणके तुम शरण हो, निराधार आधार ॥ मै डूबत भवसिंधुमें खेओल * गाओ पार ॥ इंद्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान। अपनो विरद निहारिकै, कीजे आप समान ॥१८॥ तुमरी । नेक सुदृष्टितै, जग उतरत है पार । हाहा डूब्यो जात हों, नेक निहार निकार ॥१९॥ जो मै कहूहूं औरसों तो न मिटै उरझार। मेरी तो तोसों बनी, तामें करौं प्रकार ॥ २० ॥ बंदों पाचौं परमगुरु, सुरगुरु वंदत जास। विधन हरन मंगल करन, पूरन परम प्रकाश ॥२१॥ ८१-देवशास्त्रगुरुपूजा संस्कृत। * ओं जय जय जय । नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु । णमो अरहंताणं, पमो सिद्धाणं णमो आयरीयाण। णमो * उवज्झायाणं, णमो लोये सवसाहूणं ॥१॥ ओं ही अनादि-1
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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