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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह १७४ ८ औं आं क्रीं ह्रीं ऐशान आगच्छ आगच्छ ऐशानाय स्वाहा ९ ओं आं क्रौं ह्रीं धरणींद्र आगच्छ आगच्छ धरणींद्रायस्वा० १० ओं आं क्रौं ह्रीं सोम आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा wwwwwwwwwww. PAWAN इति दिक्पालमंत्राः । दध्युज्ज्वलाक्षतमनोहरपुष्पदीपैः पौत्रार्पितं प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्य मंगलसुखानलकामदाहमारार्तिकं तवविभोरवतारयामि || दधि अक्षत पुष्प और दीप रकावीमें लेकर मंगल पाठ तथा अनेक वादित्रों के साथ त्रैलोक्यनाथको आरती उतारनी चाहिये । ये पांडुकामलशिलागतमादिदेवमस्त्रापयन्सुरवराः सुरशैलमूनि । कल्याणमीप्सुरहमक्षततोयपुष्पैः संभावयामि पुरएव तदीयविव ॥ ९ ॥ जल अक्षत पुष्पक्षेपकर श्रीकार लिखित पीठपर जिनविवकी स्थापना करना चाहिये | सत्पल्लवार्चितमुखान्कलधौतरूप्यताम्रारकूठ घटितान् पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान् संस्थापयामि कलशान जिनवेदिकांते ॥ १० ॥ जलपूरित सुन्दर पत्तोंसे ढके हुये सुवर्णादि धातुके चार कलश चौकी या वेदी के चारों कोनोंमें स्थापन करना चाहिये । आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमलबहुलेनामुनाचंदनेन, श्रीदृक्पेयैरमीभिः शुचिसदलचयैरुद्गमैरेभिरुद्धैः । हृद्यैरेमि
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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