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________________ romanimun.AVARANA वृहज्जैनवाणीसंग्रह १ जगतरवि जो निरवारै । तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदार॥ १॥ तुम जिन जोतिखरूप दुरित अँधियारि। निवारी । सो गणेश गुरु कहैं तत्वविद्याधनधारी ॥ मेरे * चितघरमाहिं वसौ तेजोमय यावत। पापतिमिर अवकाश तहां सो क्योंकरि पावत ॥२॥ आनंदआंसूघदन धोय। तुमसों चित सानै। गदगद सुरसों सुयशमंत्र. पढ़ि पूजा ठानें । ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकालनिवासी। भाजै थानक छोड़ देहवांवइके वासी ॥३॥ दिवितै आवन* हार भये भविभागउदयवल। पहलेही सुर आय कनक मय कीय महीतल ॥ मनगृहध्यानदुवार आय निवसो। जगनामी । जो सुवरन तन करो कौन यह अचरज स्वामी * ॥४॥ प्रभु सब जगके विनाहेतुबांधव उपकारी। निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी ।। भक्तिर चित ममचित्त सेज * नित बास करोगे। मेरे दुखसंताप देख किम धीर धरोगे ॥५॥ भववनमें चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम श्रुतिकथापियूषवापिका भागन पाई ॥ शशि तुषार धनसार । * हार शीतल नहिं जा सम। करत न्हौन तामाहिं क्यों न भवताप बुझे मम ॥६॥ श्रीविहार परिवाह होत. शुचिरूप * सकल जग । कमलकनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग ॥ मेरो मन सर्वग परस प्रभुको सुख पावै । अब सो कौन कल्यान जो न दिन दिन ढिग आवै.॥७॥ भवतज । सुखपद बसे काममदसुभट संहारे । जो. तुमको निरखंत । K ----- *
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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