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राबी, तिण नवि थाये साची रे॥ प्र०॥ श्री० ॥६॥
अर्थः-शुद्ध ध्येय जे परमात्म-मोक्ष पद नेनुं यथार्थ स्वरूप श्रद्धान पूर्वक में न जाण्यु तथा
साध्य सापेक्ष आचरणा न श्रादरी त्यांसुधी माहरी • चित्त वृत्ति विभावमा राची रही अर्थात् श्रा लोक
संबंधी पंच इंद्रियोना मनोज्ञ भोग्य पदार्थों तथा परलोक संबंधी स्वर्गादिना भोगमा अाशक्त रहीतेनी मनोकामना रही तेथी श्रापना सत्य प्रमाणिक आगममां बतावेली समिति गुप्ति परिषह सहन तथा चारित्र तप नियमादि परमात्म पदनी साधन भूत द्रव्य क्रियाउं पण विष गरल अने अन्योन्य अनुष्टान रूप होवाथी परमार्थ-मोक्ष पदने श्रापवा समर्थ थई नहि. ज्यांसुधी सम्यग्ज्ञानमी प्राप्ति थई नथी त्यांसुधी सर्वे क्रिया शुद्ध भाव विनानी अशुद्ध विष गरल अन्योन्य अनुष्टान रूप जाणवी उक्तंच "शुद्ध क्रिया तो संपजे, पुद्गल आवर्तने अव रे” ॥ ६॥ पण भय नहि जिनराज पसाये, तत्त्व रसायण पाये रे ॥ प्र०॥ प्रभु भगते निज