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रणे सामर्थ्यरूपा भिन्न गुणस्य पर्यायाः एवं गुणा अप्यनंताः प्रतिगुणं प्रतिदेशं पर्याया अविभाग रूपाः अनंता स्तुल्याः प्रायोइति ते चास्ति रूपाः प्रति वस्तुनि अनंता स्तलोनंत गुणाः सामर्थ्य पर्यायाः” अने धर्मादिक 'जड द्रव्यमा ज्ञान गुणथी अतिरिक्त चलनसहकारादि गुणो वर्ते छे ।। ५॥ ग्राहक व्यापकता हो, के प्रभु तुम धर्म रमी ॥ आतम अनुभवथी हो, के परिणति अन्य वमी ॥ तुज शक्ति अनंती हो, के गाताने ध्यातां ॥ मुज शक्ति विकासन हो, के थाये गुण रमतां । ६॥
अर्थ:-हे प्रभु ! भेदविज्ञाननी पूर्णता वडे श्राप निरंतर ज्ञानादिक शुद्धात्म गुणना ग्राहक छो. तेथी अतिरिक्त विषय कषायने ग्रहण करवाथी श्राप मुक्त थया छो, तेमज प्रापनी व्यापकता पण ज्ञानादिक शुद्धात्म गुणमांज निरंतर व्यापे छे पण विषय कषायमां कदापि काले व्यापे नहि तेथी आप सदा