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________________ -६२-1 - - - विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। उनसे क्रोध करता है। इस तरह अविद्या के कारणसे इन्द्रियों के विषयोंमें लम्पटता होती है। और इन्द्रय विषयोंकी लम्पटतासे क्रोधादि कषायोंमें फंसता है। बस, कपायोंमें उल्झकर अपना स्वार्थ साधनेको यह हिंसा करता है, झूठ बोलना है, चोरी करता है, परन्त्रीमें रत होजाता है, धन दि परिग्रहमे तीव्र ममता करके उनको बढाता है। ऊपर कहे हुए सत्र नमूने विषय कपायमे फंजनके कारणसे है। शिष्य-शुभ भावोके होनेमें मूल कारण क्या है ? शिक्षक-मिथ्या ज्ञानकी जगह सम्यग्ज्ञानका होना मूल कारण है । तब सम्यग्ज्ञानी इन्द्रिय भोगोंकी तृप्णा नहीं रखता है। पाचों इन्द्रियोंसे जानकर जिन विषयोंके सेवनसे आत्मोन्नतिमें बाधा नहीं पड़े उनको मन्द रागसे सेवन करता है । उसके क्रोधादि चारों कृषाय मन्द होते है । वह जानता है कि मेरे आत्माका सञ्चाहित आत्मीक सुखशांतिको पाना व आत्माको शुद्ध करना है। वह जानता है कि इन्द्रियोंके भोगोंसे तृप्ति नहीं होसक्ती है। सच्चा ज्ञानी जगतको एक नाटक समझता है । यदि सुखकी , सामग्री मिलती है तब उसमें उन्मत्त नहीं होता है । यदि दुखकी सामग्री मिलती है तब उसमे घबडाता नहीं है। सुख व दःखको समता भावसे भोग लेता है। दोनोंको धूप व छायाके समान नाशवंत जानता है। इसीसे सम्यम्ज्ञानी न्यायमार्गी होजाता है। वह अपने कष्टोंके समान दूसरोंके कष्टोंको समझता है इसीलिये उसके मनमे चार भावनाएं रहती है । 1 शिष्य-कृपा करके चार भावनाएं समझा दीजिये । 4 शिक्षक-मैत्री भावना-सर्व प्राणी मात्रपर प्रेम रखना कि मुझसे यदि उनका कुछ हित हो तो ठीक है ।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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