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________________ ५०] ..... विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा अशुद्ध होरहा है। इन कर्मोंका किस तरह संयोग होता है और किस तरह इन कोमे वियोग होता है इतनी ही बात जैन तत्वों बताई है। जैसे रोगी रोगसे पीड़ित हो जब वैद्यके पास जाता है तब वैद्य रोगीकी परीक्षा करके यह बताता है कि. तु अमल में तो रोगी नहीं है परन्तु तेरे साथ रोग इस समय लगा हुआ है। तब वह रोग होनेका कारण बताता है, रोग न बढ़ने पावे इसका परहेज बताता है तथा रोग दूर करनेकी औषधि बताता है। जिससे यह रोगसे छूट जावे। अथवा एक मलीन कपडेको साफ करनेके लिये हमें कपडेका और भैलका अलगर स्वभाव जानना होगा । मैल किस तरह चिपटा है, किस तरह मैल अधिक न बढ़े व किस तरह मौजूद मैलको हटा दिया जावे व मैल हटनेपर यह शुद्ध होजावेगा। जो इस बातों को जानता है की मैनको धोकर कपड़ेको साफ कर देता है। हरएक मलीन वस्तुको शुद्ध करनेका यही तरीका है। इसी स्वाभाविक जानने योग्य बातको जैनाचार्योंने जैन तत्वोंमें बताया है । इनका जानना बहुत ही जरूरी है। इनको जाननेसे ही हम अपने आत्माको शुद्ध करनेका उपाय कर सक्ते है। शिष्य -जैनोंके तत्त्व कितने हैं ? शिक्षक-मुख्य तत्व सात हैं, इनमें दो और जोड़नेसे नौ तत्व या पदार्थ होजाते है। शिष्य-इनको पदार्थ क्यों कहते है ? शिक्षक-पदसे समझने लायक अर्थको पदार्थ कहते है, अक्षरोंके समूहको पद कहते है। जिसका निश्चय करना जरूरी है या जो निश्चय किया जासके उसे अर्थ कहते है। ये नौ निश्चय करने
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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