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________________ ४८] विद्यार्थी जैनधर्म शिशो। इससे लाभ यह होता है कि तृष्णा अपने वश होती है व अंतिम जीवनसा समय भलेप्रकार परोपकारमें विताया जा सका है। हरएक गृहस्थ अपनी इच्छानुसार संमत्तिका प्रमाण कर सक्ता हैं। जैसे दसहजार, पचासहजार, एक लाख, दोलाख, दगलाख, एक करोड, दश करोड इत्यादि। गृहस्थोंको योग्य है कि जब पुत्रादि समर्थ हों व गृहीजीवनसे मन भरगया हो तो वे त्यागका जीवन विता सक्ते है । जिस तरह त्यागके जीवनका वर्णन हम ऊपर कर चुके है, वैसा जीवन विताया जासत्ता है। यदि परिगामोंने वैराग्य अधिक हो तो तेरह प्रकार चारित्र पालकर साधुका जीवन विताया जासक्ता है। प्रिय भाई ! आमोजति व परोकार करना यही हमारा मुख्य कर्तव्य है। अप मन.जीवनका मर्य ध्येय र शिष्य-मैं बहुत अच्छी तरह समझ गया है। अब कल मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि जैन धर्मके तत्व क्या है - -
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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