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________________ ४]] विद्यार्थी जैन धर्म: शिक्षा है जो आत्मध्यानके अभ्याससे चार घातीया कमेको नाश करके अनंत ज्ञान, अनंत, दर्शन, अनंत, सुख व अनंत ग्ल हा चार विशेष गुणोंको प्रकाश करके आयु पर्यत जीवन्मुक्त परमात्मा इरीर सहित होते है, को देश देने है, विहार करते है उनको अहंत कहते हैं। ये ही अहंत जब शेष अघातीया चार कोको भी नाश कर देते हैं और शरीर रहित मात्र आत्मा रह जाते है, वे सर्व अपने गगोंका प्रकाश धारते हुए नित्य ज्ञानानन्दमें मगन रहते है तब उनको सिद्ध कहते हैं। जो साधुओंमें प्रधान व प्रभावशाली होते हैं, अन्य साोंमें शामन कर सकते है उनको साचार्य कहते हैं। जो साधुओंमे शासज्ञानमे प्रधान तो हैं. और अन्य मधुश्रको शास्त्रज्ञान देते है उनको उपाध्याय बने हैं। जो मात्र मक्षिक साधन करते है उनको साधु कहते है। अन्तक तीनो ही पद साधुओंके है। मात्र कार्यका अन्तर है। ये सत्र साधु नेम्ह प्रकार चारित्र पालते हैं। पांच महानत. पांच समि त.शीन गुति। .. हमको गुणोफा आदर करना चाहिये । जो कोई आत्माएं इन पाच पनों के योग्य गुण पाती है व रीत, सिद्ध. आचार्थ, आध्याय वा साधु कहलाती है। जिन मंदिरोमे मतिं आहतोकी मुख्यतास विराजमान की जाती है उनकी परमवीतगगत का व्य मूर्तिमे रहता है। इस मंत्र के पढ़नेसे अनंत आत्माओं की भक्ति हो जाती है। ____ आप आत्मध्यानके समय भी इस मंत्रको पढ़कर जप सक्ते है व गुणोंका विचार कर सक्ते है। '' शिष्य-कृपा करके महाव्रत, समिति, गुप्तिको भी समझ दीजिये।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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