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________________ मैं कौन हूं। [१३ इसी तरह आनन्द गुण भी इस आत्माका स्वभाव है। इसका मोटा प्रमाण यह है कि जब हमारे भीता शाति रहती है तो सुख, स्वयं मालूम पड़ता है और जब अगाति होती है तो क्लेश स्वयं अनुभवमें आता है इसलिये जैसे ज्ञानके साथ शांनिकी मित्रता है बैंम मुग्वकी भी मित्रता है। हमारे सुख गुणको अधिकतर मोहने विपरीत कर रक्खा है। मोहका अंवेरा ऐसा छाया हुआ है कि हम यही जानते है कि इन्द्रियोंके भोगोंये ही सुख होता है । इंद्रिय सुख ही मुख होता है। इस ( sensual pleasure ) इंद्रिय सुखके लिये हम रात दिन इन्द्रियभाग संवन्धी पदार्थको लिया करते है. छोडा करने है। उनहीके मोहमे भूले रहते है। देखो, सबेरेसे शामतक व शाममे सवरेतक ह्म शरीरकी, धनकी. कुटुम्बपरिवारकी, मित्रोकी ही चितामे, उन हीकी ताफ आकर्पित रहने है। कभी भी इस अन्ध मोहको छोड़ते नहीं है इसीमे अपने ही पास जो सच्चा सुख है उसे हम नहीं भोगरहे है। शिष्य-यह वात मेरी समझमें नहीं आई कि इन्द्रिय सुखसे भी भिन्न कोई सुख है। हम तो यह जानते है कि जब हम स्वादिष्ट वस्तु खान है, अपने मित्रके हाथका मन करते हैं, सुगंधित फूलोंको संयने है, मुन्दर वस्तु देखते है, रसिला गाना सुनते हे तब हमे सुख होता है इसके सिवाय भी कोई सुख क्या जाननेमे आता है ? शिक्षक-प्रिय भाई ! इन्द्रियों के द्वारा होनेवाला सुख सुखसा दीखता है परन्तु यह सुख यथार्थ नहीं है, यह तो दुःखकी कमी है जिसे सुख समझ लेते है । जब इन्द्रिय द्वारा भोगकी चाह उटती है यही दुःख है। जब यह दुःख कुछ कम होजाता है तब
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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