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________________ जैनधर्म और हिंदू दर्शन | [ २७१ भा० - पुरुष अनादि है, सूक्ष्म है, सर्वव्यापी है, चेतन है, सत्व रजादि गुणोंसे रहित है, देखनेवाला है, भोगनेवाला है, कर्ता नहीं है, क्षेत्रका ज्ञाता है, निर्मल है, असंग है अर्थात् पुरुष कूटस्थ, केवल, सुखदुःखसे अतीत नित्य मुक्त और असंग है । स्वरूप तो बहुत अंशसे मिल जैनदर्शन मे जीवका शुद्ध जाता हैं परन्तु पुरुष कूटस्थ व अकर्ता होने से उसका संसारी व रागी, द्वेषी होना नहीं बन सक्ता है । न वह सामारिक दुःख मुखका भोक्ता होता है, यह अंतर पडता है । । जैनों के समान सांख्य भी पुरुषोंको अनेक मानते हे । CC पुरुषबहुत्वम् अवस्थात् " ( सांख्य सूत्र ६ -- ४५ ) भा०- पुरुष बहुत न माननेसे जन्म आदिकी अवस्था नहीं चन सक्ती है । जन्ममरणकरणानां प्रतिनियमादयुगपत् प्रवृत्तेश्च । पुरुषत्वं सिद्धिं त्रैगुण्यं विपर्ययाच्च ॥ ( सांख्यकारिका १८ ) भा०- सत्र जीवोंका एक ही साथ जन्म, मरण, या इन्द्रि - की प्रवृत्ति नहीं दिखलाई पडती है । एकमें एक गुण प्रबल है दूसरेमे उसका विपरीतपना है इसलिये पुरुष अनेक हैं । सांख्यवादी ईश्वरको मानते ही नहीं है। सांख्य प्रवचन सूत्रमें साफर ईश्वरका प्रतिषेध किया है। यहां यही भाव है कि वे ईश्वरको कर्मकर्ता व फलदाता नहीं मानते हैं, मुक्त पुरुषको ही ईश्वर स्वरूप मानते हे जैसे जैन लोग मानते हैं । भगवद्गीता १२ वें
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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