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________________ २६४] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । है, पदार्थ रहते हे, जड व अन्य चेतन पढार्थ रहने हे परन्तु ध्याताके स्वानुभवमे एक आत्मीक आनन्दके स्वादके और कुछ नहीं भास रहा है। यदि वेदातका यह मत हो कि विश्वमे और पदार्थकी सत्ता ही नहीं है, सत्ता मानना ही भ्रम है, केवल एक ब्रह्मकी ही सत्ता है वही विश्वरूप होता है, वही विश्वरूप समेट लेता है. वही नाना अवतार धारण करता है, उसीकी सब माया है तो तो जैन सिद्धातसे अंतर पडता है । क्योंकि जैन दर्शन छ. द्रव्योकी व उनमे भी अनंतानंत आत्माओकी व पुद्गलोंकी सत्ता सदा मानता है । मोक्ष प्राप्त आत्माएं भी भिन्न सत्ताको रखती हई म्वात्मानंदमे मगन रहती है। स्वात्मानुभवीकी ओक्षा एक अद्वैतभाव ही स्वानुभवमें झलकता है ऐसा श्री अमृतचंद्र आचार्यने समयसार कलशमे कहा है. उदयन्ति न नयश्रीरस्तमेत प्रमाणं । कचिदपि च न विघ्नो याति निक्षेपचक्रं ॥ किमपरमभिदध्मो धान्नि सर्वकोऽस्मि-1 ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ ९-१॥ भा०-जब स्वात्मानुभव प्रकाशमान होता है जो अनुभव सर्व तेजोंको मन्द करनेवाला है तब नयोंकी या अपेक्षाओंकी लक्ष्मी उदय नहीं होती है। प्रमाण प्रमेय प्रमितिका विचार नहीं आता है। नाम स्थापनादि निक्षेप मालम नहीं कहा विख्य होजाता है और अधिक क्या कहे, वहा कोई द्वैत ही नहीं भासता है । एक अद्वैत आत्मरस ही स्वादमे आता है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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