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________________ २४०] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। देश हितसे बाहर जाता है व विदेशी वस्त्र व्यवहारकी उत्तेजना देता है। ऐसेको स्वदेश भक्त नहीं कहा जायगा कितु स्वदेश द्रोही माना आयगा। इसी तरह जब मास बहुधा पशु घातके विना नहीं आता है, इसलिये जगह २ कसाईखाने खुले है। पशु निर्दयतासे मारे जाते है। यदि मासाहारी मास न खावे तौ पशु कभी भी न मारे जावे ऐसा गृहस्थ व साधु दोनों जानते है । जानने हुए भी यदि मास स्वीकार करते है तो उनके मनके भीतर मासकी पसढगी होनेसे हिसा करानेकी उत्तेजनाका दोष अवश्य आयगा । यदि कोई माल बाजारमें बिक रहा है और हमारे मनमे यह शंका होती है कि यह माल चोरीका मालम होता है क्योंकि बहुत ही अल्प दाममे यह बेच रहा है, ऐसी शंका होनेपर यदि हम उसको खरीद लेने हे तो हम अवश्य चोरीको उत्तेजना देनेके भागी होनेसे चोरीके दोपसे विलकुल मुक्त नहीं होसक्ते। ___ जो कोई मन, वचन, काय व स्त कारित अनुमोदनासे चोरीका त्यागी होगा वह कठापि चोरीका माल नहीं खरीदेगा। इसी तरह जो मन, वचन, काय व कृत कारित अनुमोदनासे हिंसाका त्यागी होगा वह कदापि मांस स्वीकार न करेगा , न खायेगा । यदि यह कहा जावे कि स्वयं मरे हुए पशुका मांस गृहस्थ लोग खावे व साधुको भिक्षामें मिले तो तो कोई पशु घात करने, कराने व पशु घातकी पसंदगीका दोष नहीं आता है । तो इसका उत्तर यह है कि मासाहारकी आदत न पडने पावे । इसलिये ऐसा मांस भी नहीं स्वीस्वीकार करना चाहिये।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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