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________________ जैन और बौद्ध धर्म । [२३३ उपसंहतिः । एतं सतं एतं पणीतं यदितं सब्बसंखार समयो सनुपाधि 'पटिनिस्सग्गो तहखयो विरागो निरोधो निव्यानति-सो तत्थहितो आसवानं वयं पायुनाति ॥३॥ भा० -जिसके भीतर ऐसा होवे कि वेदना, संज्ञा, संस्कार विज्ञान ( अशुद्ध, ज्ञान ) संबंधी विभाव धर्म नित्य है, दुःख है, रोग है, घाव है, शल्य हे, पाप है, बाधा है, पर है, देखनेयोग्य नहीं हैं, शून्य है, अनात्मा है, जो ऐसा समझता है वह उन विभावोंसे चित्तको हटाता है । इन धर्मोसे चित्तको हटाकर व अमरधातु अर्थात् मोक्षपदकी तरफ चित्तको लगाता है। यह निर्वाण ही गात है, उत्तम है, जहा सर्व संस्कार शात होजाते है, सर्व उपाधि दूर होजाती है. तृष्णाका क्षय होजाता है, वीतगगता होती है, आस्रवोका विरोध हो जाता है. इस तरह वह इस भावमें ठहरा हुआ आम्रवोंका क्षय कर डालता है। दिग्बनिकाय (३) ३३ संगीत सुनंत । इसमे कथन है कि एक धर्म ब्रह्मचर्य है। दो धर्म स्मृति व समाधि वल है. या विद्या और विमुक्ति हैं, या इन्द्रियोंका निग्रह और भोजनमे मात्रारुप संयम है । या अविद्या, तृष्णाका क्षय है या नाम-रूपका वियोग है । तीन धर्म है मोह, लोभ, द्वेषका क्षय । चार धर्म हैं-गील, समाधि, प्रज्ञा, विमुक्ति। दश विभाव धर्म हैंप्राणातिपात, दनादान, ( चोरी), कामेसुमिथ्याचार (कामभाव), मृपावाद, पिमन वचन (चुगली), फरुसावाचन (कठोर वचन), सम्यक आलाप (वृथा वकवक), अभिज्ञा (लोभ), व्यापाद (क्रोध) मिथ्यादृष्टि । इनसे विरक्त रहना चाहिये।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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