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________________ ___ २१२] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। भा०-अज्ञानी कर्मोको करते हुए कर्मका भय नहीं करने है। धीर पुरुष क्रियारहित आत्मानुभवके द्वारा कर्मोको क्षय करने है । लोभरहित संतोषी पण्डितजन पाप नहीं करते है । नाणस्स सव्वस्स पगासणाय अण्णाण मोहस्स विवजणाए । रागस्स दोसस्स यतखएणं एगंतसविखं समुवेड मोक्ख ॥२१-१८ भा०-सर्व ज्ञानके प्रकाश होनम, जान व मोहके छूट __ जानेसे, रागद्वेषके क्षय हो जानसे परम सुखरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। आत्मध्यान व अहिंसाकी पुष्टि इन गाथाओंमे है। शिष्य-क्या दिगम्बर जैन शास्त्रोंसे कुछ ऐसा साहित्य बतायेंगे? शिक्षक-यदि आपकी इच्छा है तो कुछ उपयोगी साहित्य नीचे दिया जाता है योगसारमें श्री योगेंद्राचार्य कहते हैजो णिम्मल अप्पा मुणइ वयसंजमुजुत्तु । तउ लहु पावइ सिद्ध सुहु इउ निणणाहह बुत्तु ॥ ३०॥ भावार्थ-जो व्रत व संयमको पालते हुए निर्मल आत्माको अनुभव करता है सो शीघ्र ही सिद्धके सुखको पाता है ऐसा जिनेन्द्र कहते है। धम्मरसायणमें श्री पद्मनंदि मुनि कहते हैजियकोहो जियमाणो जियमायालोहमोह जियमयओ। जियमच्छरो य जम्हा तम्हा णाम जिणो उत्तो ॥ १३५॥ भावार्थ-जो क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदिको जीतता है वही जिन है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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