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________________ [ २०३ जैनोंक भेद। वे श्वेताम्बर साधुलोको भुलकवत देखकर इस विषयमें मध्यस्थ भाव ग्वखें । परस्पर उनका न कर. जिमसे जैसा सधे वह बाहरी चारित्र वैसा पाले । अपनीर श्रद्धानुकूल पाले | अंतग्न चारित्रमें तो आपने कहा है कि भेद कुछ नहीं है । शिक्षक--वास्तवमे अंतरङ्ग चारित्रमें एक ही मत है। दिगंबर जैन शास्त्र भी कहते है कि जबतक स्वात्म रमण न होगा तबतक मोक्षमार्ग यथार्थ नहीं है, केवल बाहरी भेप मोक्षमार्ग नहीं है। देखिये श्री कुंदकुंदाचार्य समयसारमे यही कहते है.--- गाथा--ण वि एस प्राक्खमग्गो पाखण्डीगिहिमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ॥४१०॥ भावार्थ-साधु व गृहीके भेप मात्र मोक्षका मार्ग नहीं है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान. सम्यकचारित्रकी एकता जो आत्मानुभव रूप है. वही मोक्ष मार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र कहते है। यही बात ऊपर लिखीत श्वे० ग्रन्थ आचारांगमें कही है। " बंधयमुक्खो अत्सत्यव इत्थविरए अणगारे दीहण्यं तितक्खए पमन बहिया पास अप्पमत्तो परिव्वए एवं मोणं सम्म अणुवासिज्जा सित्ति वेमि" (सू० १५० लोकसाराध्ययने द्वितीयोद्देश १५/२ ) भावार्थ-बन्ध या मोक्ष भीतरी परिणामोंमे है । विरक्त गृह रहित साधुको रातदिन परिपह सहना चाहिये । जो प्रमादी है उनको मोक्षमार्गके बाहर जानना चाहिये। अप्रमादी होकर वैराग्यमें रहे, ऐसे मुनिको भलेप्रकार मोक्षमार्ग पालना चाहिये । और भी वहीं कहा हैइह आणाकंखी पंडिए अणिहे राग मप्पाणं संवेहाए कमेहि
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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