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________________ जैनोंके भेद। [२०१ सं०-तत् इन्द्रोपाईतं वनं संवत्सरमेकं साधिकं मोचयन्नत्यक्तवान भगवान् तत् स्थितकल्प इति कृत्वा तत् ऊर्ध्वं तत्वस्त्रपरित्यागी व्युत्सृज्य च तद्रनगारो भगवान् अचेलोऽभूत । ( नौमा अ० पृ० ३०१ शीलांकाचार्य विहित विवरण युनं मुद्रित म्हेसाणा लल्लभाई किशोरदास सन् १९१६)। शिष्य-क्या वे नग्नत्वको सवस्त्रधारीये अच्छा समझते हे ? क्या इसके भी कुछ शास्त्रीय प्रमाण है ? शिक्षक-उमी आचारांगमें सूत्र २१६-२२६ अध्याय ८ पृ० २७७-२८६ में "जं भिक्खु अचेले परिव्रसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ चाएमि अहंतण कासं" अर्थात् जो भिक्षु नग्न रहेंगे उनको यह नहीं मालूम होगा कि मेरे तृण स्पर्श होरहे है वे तृण स्पशकी बाधा सहेगे। प्रवचनसारोद्धार भाग ३ (छपी मंवत् १९३४) पृ०१३४ " आउरणवजिगणं विसुद्ध जिणकप्पियाणंतु" अर्थात् जो वस्त्र रहित हे वे विशुद्ध जिनकल्पी है । शिष्य-च्या सवन्त्र जैन साधुका चारित्र श्री महावीरस्वामीके समयमें या पहलेम ताम्बर जैन मानते है ? शिक्षक-श्वेताम्बर जैन कल्पसूत्र आदि अपने ग्रन्थोंसे यह कहते है कि श्री पार्श्वनाथके समयमे वस्त्र सहित साधु होते थे, महावीरस्वामीने सुधार किया, नग्नत्वका प्रचार किया। शिष्य-क्या कोई ऐतिहासिक प्रमाण इस बातकी पुष्टिका है? शिक्षक-जहांतक मुझे मालूम है अबतक कोई ऐतिहासिक
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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