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________________ - १७६] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। शीलभाव वर्द्धक रखना चाहिये । भेष व वस्त्र व गरीरकी चेष्टाका बडा भारी असर पड़ता है। अपरिग्रहव्रतकी पांच भावनाएं-स्पर्शन, रसना. घाण, चक्षु तथा कर्णके ग्रहणमें आनेवाले विषय यदि मनोज्ञ हों तो राग नहीं करना व अमनोज्ञ हों तो द्वेष नहीं करना चाहिये। संतोषके साथ जो आवश्यक योग्य वस्तु मिले उसको भोग लेना चाहिये । आकुलित न होना चाहिये। शिष्य-इन भावनाओंको हमने समझ लिया, बहुत जरूरी है। कृपाकर अब इन व्रतोंका स्वरूप बता दीजिये । शिक्षक-इनका स्वरूप संक्षेपमे इस भाति है: कषाय सहित होकर अपने या दूसरोंके भाव व द्रव्य प्राणोंका घात करना व उनको कष्ट देना हिंसा है । हिंसाका न होना अहिंसा है । आत्माका स्वभाव ज्ञान, शातभाव, क्षमा आदि भाव प्राण है ।। जबकि द्रव्यप्राण दस है-एकेन्द्रियके चार, द्वेन्द्रियके छः, तेद्रियके. सात, चौद्रियके आठ, असैनी पंचेंद्रियके नौ. सैनी पंचेंद्रियके दश। इनका वर्णन जीवतत्वके अध्यायमें कर चुके है। जब कभी क्रोधादि कपाय होता है तब पहले उसीका ही बिगाड होता है, उसकी आत्माके ज्ञान शाति आदि भावोंका नाश होता है तथा उसके द्रव्य प्राणोंको भी निर्बलता प्राप्त होती है। फिर जब वह दूसरोपर दुर्वचन फेंके व प्रहार करे तो दूसरोके भी भाव व द्रव्यप्राणका घात होसक्ता है। यदि वह हिस्य प्राणी धर्मात्मा है व गाली आदिका खयाल नहीं करता है तो इसका भाव कुछ भी नहीं बिगडेगा । यदि वह मारा पीटा जायगा तो द्रव्य प्राण बिग
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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