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________________ संवर, निर्जरा और मोक्ष। [१७१ तीनों कोनोपर अग्निमय ऊँ र लिखा विचारे । फिर सोचे कि भीतरी अग्निकी ज्वाला कर्मोको व बाहरी अमिकी ज्वाला शरीरको जला रही है। जलतेर राख वन रही है। जब सव राख होगई तब अग्नि वुझ गई या पहलेके रेफमे समा गई, जहांसे वह आग उठी थी। इतना अभ्यास करना अग्नि धारणा है। (३) वायु धारणा-फिर वहीं बैठा हुआ सोचे कि मेरे चारों तरफ बड़ी प्रचंड पवन चल रही है । पवनका एक गोल मंडल बन गया है। उस मंडलमें कई जगह स्वाय स्वाय लिखा है। यह पवन मंडल कमकी व शरीरकी रजको उडारहा है, आत्मा स्वच्छ होरहा है, ऐसा सोचे। (४) जलधारणा--फिर वहीं बैठा हुआ यह सोचे कि मेघोकी घटाएं आगई, विजली कडकने लगी, बहुत जोरसे पानी वरसने लगा, पानीका अपने ऊपर एक अर्ध चंद्राकार मंडल बन गया जिसपर पपपप कई जगह लिखा है। यह पानीकी धाराएं आत्माके ऊपर लगी हुई रजको धोकर आत्माको साफ कर रही है ऐसा सोचे। (५) तत्वरूपवती धारणा--फिर वही सोचे कि मेरा आत्मा सिद्ध सम शुद्ध है, अब इसमें न तो कर्म हैं न शरीर है। ऐसा अपनेको पुरुषाकार शुद्ध विचारके उसीमें जम जाना पिडस्थ ध्यान है। इस ध्यानका अभ्यास साधकके लिये बहुत ही आवश्यक है। (२) पदस्थ ध्यान -मंत्रपदोंके द्वारा अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय व साधुका तथा आत्माका स्वरूप विचारना पदस्य ध्यान है। इसके बहुतसे भेद हैं। ऊँ या है मंत्रको नाशिकाके अग्र भागमें या दोनों भौहोंके मध्यमें या हृदयकमलके ऊपर चमकता हुआ विचार कर ध्यान करे। कभी कभी पांच परमेष्ठीके गुण विचारे। कभी कभी
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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