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________________ - १६४] विद्यार्थी मैनधर्म विक्षा। निर्ममत्व भाव रखना उत्तम आकिचन्य है। (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य-काम भावको त्यागकर ब्रह्मचर्य पालकर ब्रह्म स्वरूप आत्माका मनन करना उत्तम ब्रह्मचर्य है। इन दश धर्मोके पालनेसे पाप कर्मोका बहुत अधिक मंवर होता है। (४) वारह अनुप्रेक्षा या भावना--ऊपर कहे हुए दग धर्मोके पालनेके लिये बारह भावनाओंका चितवन बार बार करना जरूरी है । ये भावनाएं वैराग्यकी वृद्धिके लिये बहुत आवश्यक है (१) अनित्य भावना-शरीर, भोग सामग्री, कुटुम्ब संयोग, जीवन सब जलके बुल्लेके समान या बिजलीके समान नागवंत है। इनको नाशवन्त मानकर मोह करना मूर्खता है। (२) अशरण भावना-जीवोंको मरणसे व तीत्र कर्मोके उदयसे कोई बचा नहीं सक्ता ऐसा विचार कर निरन्तर निज आत्मा या अरहंत आदि पांच परमेष्टीकी शरण लेना अशरण भावना है। (३) संसार भावना--संसारी जीव कर्मोके उदयसे चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए तृप्णाकी दाहको शमन नहीं कर पात है। इस लिये संसारासक्त अज्ञानीको कहीं भी सुख नहीं है। गारीरिक व मानसिक दु खोंसे संसारी जीव सदा पीडित रहते है । सुखशांति आत्माके ज्ञानसे ही होसक्ती है। (४) एकस्व भावना--इस जीवको अकेले ही जन्मना, मरना व अपने वाधे हुए पाप पुण्य कर्मोका फल भोगना पड़ता है । यह आत्मा वास्तवमे सर्व कर्मोसे व रागादि भावोंसे रहित है । इस अपने एक स्वभावका मनन करना, अपनेको अपनी उन्नति व अवनतिका जिम्मेदार समझना एकत्व भावना है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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