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________________ १६२] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। खेलनेकी आदत हो उसे जूआ त्याग देना चाहिये । तब जूएके भावसे जो कर्म आते थे वे रुक जाते है। भावोंको निर्मल रखनेके लिये व कर्मों के आगमनको रोकनेके लिये संवरके उपाय इस प्रकार जैन शास्त्रोंमे बताए हे (१) गुप्ति, (२) समिति, (३) धर्म, (2) अनुप्रेक्षा, (५) परीपह जय, (६) चारित्र, (७) तप तपमे कांकी निर्जरा भी होती है । तपसे बहुतसे कर्म विना फल दिये हुए झड जाते है । इसको अविपाक निर्जरा कहते है। जो कर्म फल देकर झड़ने है उसको सविपाक निर्जरा कहते है। शिष्य-इनका कुछ स्वरूप बतादीजिये । शिक्षक-हमें बहुत संक्षेपसे बताना है । क्योंकि आप बुद्धिमान है जल्द समझ जावेंगे। (१) गुप्ति-मन, वचन, कायके हलन चलनको गेमकर ध्यानमग्न रहनेसे व आत्माका अनुभव करनेसे बहुत कर्मोंका आना रुकता है। यह गुप्ति संवरका सनसे प्रवल उपाय है। जो कोई तीनोको रोककर हर समय ध्यान न कर सके उसके लिये पाच समिति बताई है कि वह सम्हाल कर वर्ने जिससे पापोका आना न हो। (२) समिति-भले प्रकार वर्तनेको समिति कहते है । ये पाच है। (१) ईर्या-चार हाथ भूमि देखकर दिनमे जंतु रहित हुए मार्ग पर चलना । (२) भाषा--शुद्ध सरल मीठी वाणी कहना । (३) एपणा--गृहस्थका दिया हुआ शुद्ध भोजन लेना। (४) आदान* स गुप्तिममितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्रै. ॥२॥ तपसा निर्जरा च ।। ३०९॥ त० सू०
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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