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________________ १६० ] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । जल्दी पका सक्ते है | जैसे स्थूल शरीर में भिन्न २ क्रियाएं होती हैं 1 वैने मौके बने हुए सूक्ष्म शरीरमे जानना चाहिये । कर्मो के आसव और बन्धके सबंध में जो जो जरूरी बातें जानने लायक थीं सो आपको बता दीगई है । आठवां अध्याय । संवर, निर्जरा और मोक्ष । शिक्षक - अब हम आपको सवरके सम्बन्धमें कुछ विशेष बताना चाहते है । आस्रवका विरोधी संवर है । जिन भावोंसे कर्म आते हैं इनको रोक देना संवर है । क्या आप बताएंगे कि आसव भाव क्या क्या है ? शिष्य - पहले आप बता चुके है कि कर्मोके आनेके भाव अर्थात भावास्रुव मिथ्यात्व, अविरत. प्रमाद कषाय, योग है । शिक्षक- उन हीके विरोधी सन्यकूदर्शन. त्रन, अप्रमाद, निष्कपाय तथा योगरहितपना है । मिथ्यात्वके दूर करने के लिये हमे सम्यकुदर्शन प्राप्त करना चाहिये | निश्चय सम्यक्दर्शन अपने आत्माके असली स्वरूपका विश्वास है कि यह आत्मा पूर्ण ज्ञातादृष्टा आनन्दमई वीतराग व अमृतक है । यह भावकर्म रागद्वेषादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, नोकर्म शरीरादिसे भिन्न है । इस निश्रय सम्यक्दर्शन के लिये व्यव
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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