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________________ १४०] विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा। स्थानतक यथासभव पाए जाते है। चौदहवें अयोग गुणस्थानमें योग भी नहीं रहते है, इससे वहा कर्मोंका आव व बंध बिलकुल नहीं होता है। पहले गुणस्थान मियादर्शनमे मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग पाचों ही कर्मोके आमव और बंधके कारण मौजूद है । दूसरे तीसरे चौथे गुणस्थानोंमे मिथ्यात्व छूट गया। नीसरे चौथेमे अनतानुबधी कपाय भी टूट गया। पाचवें देश संयत गुणस्थानमे एक देश अविरति भाव टल गया। अप्रत्याग्वानावरण कपाय भी नहीं रहीं। ___ छठं प्रमत्त विग्तमे प्रमाद, कपाय व योग तीन कारण है। यहा प्रत्याख्यानावरण कपाय भी नहीं रही। अप्रमत्त सातवें गुणस्थानमें प्रमाद भी छूट गया, मात्र कपाय और योग है। नौमे गुणस्थान तक सर्व कपाय चली गई मात्र सूक्ष्म लोभ रह गया। दसवें तक कपाय व योग है फिर ११मे १३ तक मात्र योग ही रह गया। ... जैसे २ गुणस्थान बढता जाता है वैसे २ आसव बंधके कारण भी घटते जाते है। शिष्य-आपने बहुत ही उपयोगी बात बताई। आसव बंधके संबंधमे कुछ और विशेष जानना जरूरी है। शिक्षक-आपको यह जान लेना जरूरी है कि संसारी जीव कोई भी अच्छा या बुरा काम करते है उनमे जीवके भाव भी लगते है तथा शरीर व बाहरी अजीव पदार्थोका भी सम्बन्ध होता है-जैसे हमने किसी पशुको लाठी मारी इसमे जीवका क्रोधभाव कारण है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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