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________________ विद्यार्थी जैनधर्म शिक्षा । ये तीन जोडे विरोधी स्वभावोंके है तथापि ये भिन्न २ अपक्षामे पाये जाते है, इसमे कोई विरोध नहीं रहता है। इनमेंसे नित्य, अनित्य इन दो स्वभावोंको पदार्थमे बताते हुए. सात भंग कैसे बनते है उनको हम बताते है। हरएक पदार्थ मन्रूप है. अविनाशी है. इससे तो वह नित्य है। वहीं पढार्थ अवस्थाकी उत्पत्ति व व्ययकी अपेक्षासे अनित्य है। द्रव्यका लक्षण हम पहिले वता चुके है कि जो उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप हो वह द्रव्य है। दूसरे शब्दोंमे जो अनित्य व नित्यरूप हो वह द्रव्य है। यदि ये दोनों स्वभाव एक ही समयमे किसी भी द्रव्यमे न पाए जावे तो उन द्रव्यसे कुछ भी काम नहीं लिया जासक्ता। हम सुवर्णका दृष्टात लेते है। यदि सुवर्ण नित्य ही हो तो उसमें कोई अवस्था नहीं होसक्ती है। वह सदा एकसा बना रहेगा तव उसको कोई बुद्धिमान न खरीदेगा । क्योंकि उसमे आभूपणकी अवस्था तो वनेगी ही नहीं । यदि सुवर्णको अनित्य ही मानले तौभी उसे कोई खरीदेगा नहीं क्योंकि वह तो क्षणभरमे विलकुल न रहेगा। सो ऐसा सुवर्णका स्वभाव नहीं है । सुवर्ण सुवर्णरूपसे रहता हुआ भी अपनी अवस्थाओंको बदल सक्ता है। सुवर्णकी डलीमे बाली, वाली तोड़कर अंगूठी. अंगूटी तोड़कर कंठी वनजाती है। यदि नित्य अनित्य उभयरूप सुवर्ण न हो तो सुवर्णसे कोई काम नहीं होसक्ता । इसी तरह जीव द्रव्य भी मूल द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है परन्तु अवस्थाओंके बदलनेकी अपेक्षा अनित्य है। एक जीव क्रोधी दीख रहा है। वही कुछ काल पीछे शांत होजाता है । उसकी अवस्था पलटी तब भी जिसमे अवस्था पलटी वह द्रव्य तो वहीं है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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