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________________ ८२] विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा। संसारी और मुक्त। या संमारी जीवोंके पाच भेद है-केंद्रिय, द्वेन्द्रिय. तेंद्रिय चौन्द्रिय. पंचन्द्रिय।। (2)ऋजुमूत्रनय-जो पदार्थकी वर्तमान पर्यायको या अवस्थाको ग्रहण करे सो ऋजुमूत्रनय है। जमे कहना कि यह आदमी बृढा है यह लड़की रोगी है यह आम पक गया है. आनका मौनम ठण्डा है। (५) गन्दनय-जो गकरण व साहित्यके नियमके अनुसार शब्दोंका व्यवहार करे वह गन्दनय है। कहींपर एकवचनमें बहुवचन. बहुवचनमे एकवचन वीलिंगमे पुल्पलिंग। वर्तमानकालमें भृतकाल आदिका व्यवहार गन्नामे हो तो वह गन्दनयसे ठीक माना जायगा । जैसे एक मानवको देखकर कहना आप नो कभी कभी आने है, यहा एकको बहुत कहना गहनयमे टीक है । या रावण रामसे युद्ध करनेको मेना एकत्र कर रहे है। यहा मृतकालमे वनमानकी क्रिया है मो गन्दनयमे टीक है। संस्कृतमे वीके लिये दारा पुंलिंग गळका व्यवहार करते है, गन्दनयमे यह ठीक है। (६) सममिल्टनय--गब्दोंके अनेक अर्थ होनेपर भी एक किसी पदार्थमें उस शडके एक अर्थका व्यवहार करना जिससे हो वह समभिरूढ़ नय है। जैसे गौको गो कहना. गो शन्दके अर्थ पृथ्वी. जल, वाणी. चलनेवाले अनेक है. उनमेमे चलनेवाली अर्थ लेकर गौको गोकान्ड कहना, सोती हुई दशामे भी उसे गौ ही कहेंगे। यह वात समभिरुड़नयसे ठीक है। या जैसे किसीको बढ़ई या मुहार कहके पुकारना चाहे वह रोटी खाता हो व शयन करता हो । (७) एवंभूतनय-जिस शळका जो अर्थ हो उसीके समान क्रिया करते हुए पदार्थको जो जाने या ग्रहण करे सो एवंभृतन्य है।
SR No.010574
Book TitleVidyarthi Jain Dharm Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherShitalprasad
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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