SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 9
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दार्थ छिलके की तरह उतर रहता और वह गूढार्थ सर्वथा सम्प्रदायनीन और मार्वजनीन हो आना है। इन पंक्तियों में पाठक कुछ बहुत क्रान्तिकारी और चमत्कारी प्रमेय पायेंगे । लेखक का मानना है कि “मनोवैज्ञानिक मानम दार्शनिक मृत्यु के लिए विह्वल बना स्वयं आहुन होता है तो आत्मा का सूर्य उदय में आना है। यही दार्शनिक मृत्य है जिमकी स्थापना महावीर ने निर्वाण गब्द के द्वाग को"। जैन पान्थिकों के आगे उनका प्रश्न है "क्या महावीर की वाणी में मामयं नहीं है कि वह कर्मशक्ति को प्रेरित करे? फिर जैन विवेचना अममर्थ क्यों है? " "बौद्धिक ज्ञान का व्यवहारीकरण तप है"। "विपरीनों को जोनने का मार्ग विरोध नहीं। वपरीत्य को अनावश्यक बनाना है" "गहन मनोविज्ञान बतायेगा कि मांकेतिक 'गृहत्याग' मफल जीवन के लिए आवश्यक है।" "इन मांसारिक सम्बन्धों के महत्वहीन रूप को ममझो, फिर घने वनों में अपनी अकेली आत्मा पर ममम्न उपद्रवों को महो तब आत्मा में घावक जगेगा । आत्मा पगक्रमी, और तेजोमय होगी। तभी ज्ञान का यज्ञ शुरू होगा"। "एक जीवन है जो जीवशास्त्र का विषय नही, वह बढ़ने, घटने, उगने जमी क्रिया में मान है" । "यह कहना गलत होगा कि पत्थर में जीव है, तीर्थकर विचार के अधिक निकट यह है कि पत्थर स्वयं जीव है "। इस प्रकार की अनेक स्थापनाएं है जो महमा हमें चकित कर देती है। उनके मनन मे सप्ट हो जाता है कि प्रवक्ता ने पूर्व और पश्चिम दोनों के दार्शनिक मन्तव्यों का तुलनात्मक अध्ययन करके अपने निष्कर्षों को उपलब्ध किया है । मुझे विश्वास है इस लेखक की वाणी और लेखनी प्रबुद्धजनों का ध्यान आकर्षित करेगी और इस नवाविष्कृत साहित्यकार को समुचित मान्यता प्राप्त होगी।
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy