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________________ यदि गजननिक वैर भाव ने अपने पूर्वजों में मिली मम्पत्ति के प्रति यह दुगव वग्नने की हमे प्रेग्णा न दी होती। शकगचार्य ने और वाद के चिन्नकों ने जन विचारधाग को वैदिक विचारधाग मे विल्कुल अलग और वेद विरोधी कह कर दम जानि का बहुत नुकमान क्यिा । इस विपय पर बहुत कुछ कहने को है और उमपर बोलने में एक अलग ही विषय बनने का भय है। यही कामना करता हूँ कि किमी दिन हमारी जाति जैन और वैदिक ज्ञानघागओं को अपने में ममान रूप में ममाने हुए इम लम्बी ऐनिहामिक भूल की शृखला को नोड देगी। जन विचार धाग के प्रति इम द्वेप मे पूर्व कभी आर्योमे इसके प्रति मही मन्याकन और आदर भाव जरूर रहा होगा जिमका आभाम यजर्वेद और मनुम्मृति के उपरोक्न उदाहरणो मे मिलता है । इस प्रकरण को ममाप्त करने के लिए योगवशिष्ठ के निम्न उहग्ण मे मन्दर अन्य उसहरण उपलब्ध नही है : "नाहं गमोन मे वांछा भावेप च न मे मनः । गानिमाम्थातुमिच्छामि म्वात्मन्येव जिनो यथा ॥१॥ (अर्थात् मै गम नही हूं, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावों वा पदार्थों में मेग मन नहीं है। मै नो जिनदेव के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति स्थापना करना चाहता है)। 78
SR No.010572
Book TitleVarddhaman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmal Kumar Jain
PublisherNirmalkumar Jain
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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