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________________ साधना की पूर्व भूमिका | ११ है तो वह विकास यात्रा ऊर्ध्वमुखी हो जाती है । जीव से शिव तक, जन से जिन तक और आत्मा से परमात्मा तक पहुंचकर यह यात्रा सम्पन्न होती है। इसी विकासयात्रा को हम जन से जिनत्व की साधना कह सकते हैं। तीर्थंकर महावीर एक ही जीवन की (जन्म की) साधना से तीर्थकर बन गये हों, मानव से महामानव के पद पर पहुंच गये हों.-यह असम्भव कल्पना है । अनेक जन्मों में उन्होंने तपस्या की होगी, सेवा की होगी, आन्तरिक एवं बाह्य संघर्ष से जूझते रहे होंगे । शरीर को भी तपाया होगा। मन को भी साधा होगा । भूख-प्यास, शीत-ताप, मान-अपमान की हजारों पीड़ाएं, यातनाएं सही होंगी और सब कुछ सहकर अन्तर्जीवन को निर्मल एवं उदात्त बनाते रहे होंगे-यह कल्पना हमारे जिज्ञासु मन में उठती है, और हमारी पौराणिक गाथाएं इसका उपयुक्त समाधान भी देती हैं। यात्रा का प्रथम चरण वैसे तो प्राणी की यात्रा अनादि है, क्योंकि जब आत्मा की सत्ता अनादि है, तो उसकी यात्रा के किसी प्रथम पड़ाव की कल्पना भी गलत है। उसकी आदि यात्रा का कोई लेखा-जोखा सर्वज्ञ पुरुषों के पास भी नहीं है, तो पुस्तकों में कहां से होगा। अतः भगवान महावीर की यात्रा के किस पड़ाव से हम उनकी यात्रा की दीर्घता को नापें; यह एक विकट प्रश्न है। किन्तु इस प्रश्न का उपयुक्त समाधान भी भगवान महावीर की जीवनगाथा के लेखकों ने खोजा है। वे कहते हैं, जिस दिन से भगवान महावीर की आत्मा ने विकास की सही दिशा पकड़ी, उसी दिन से उनकी यात्रा को हम आध्यात्मिक विकास यात्रा कह सकते हैं । आत्मविकास की सही दिशा में उन्होंने जिस दिन प्रथम चरण बढ़ाया था, महावीर के उसी भव (जन्म) को हम उनका प्रथम भव (आध्यात्मिक विकास तथा सम्यक्त्व प्राप्ति की दृष्टि से) कह सकते हैं । जन आचार्यों ने भगवान महावीर के ऐसे पूर्व भवों की कोई बहुत लम्बी परम्परा नहीं बताई है । वे सिर्फ छब्बीस भव पूर्व की भव परम्परा गिनकर सत्ताईसवें भव में ही उन्हें तीर्थकर महावीर के रूप में उपस्थित कर देते हैं। अगले पृष्ठों में हम तीर्थंकर महावीर के जीवन की पृष्ठभूमिस्वरूप उनके पूर्वभवों को कुछ विशेष प्रेरणाप्रद घटनाओं की चर्चा करेंगे। १ आचार्य गुणभद्र की मान्यता के अनुसार तीर्थकर महावीर की विकासयाना तेतीस भव पूर्व प्रारम्भ होती है, और चौंतीसवां भव महावीर का होता है। देखिये-उत्तरपुराण पर्व ७४, पृष्ठ ४४
SR No.010569
Book TitleTirthankar Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages308
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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