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________________ वतुर्थ सर्ग:किशोर का झट सोचा 'सम्मति' नाम सुम्म, मति भेद सकी गति मायावी. अन दिग्वेषी सु-साधु जन को, श्री बर्द्धमान ने देखा जब । बोले से सभी साथियों से, बल करें साधु-स्वागत हम सभी बालक धिर पाए मुनि-समोष, निज नायक के कथनानुसार। युन थति का अभिनन्दन करने, थे खड़े हुए सब विनय धार मुनि द्वय ने भी बालक-गण को, अशोर्वाद हो मुदित दिया । फिर बर्द्धमान का नाम सुभम, सम्मति' बच्चों को बता दिया । तदनन्तर युग मुनिपर सस्कर, थे विदा हुए अपने पद पर । पर सम्मति बालक ने 'सम्मति', उपयुक्त नाम पाया सुन्दर । इति बात खेल में अब कहते, इनसे सन्मति' कालक-गण सत्र पर समरस'सन्मति'को किलिचत, था गर्व न पा यह गुरु गोरख ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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