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________________ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव जब से जन्म हुमा तब से ही, बढ़ती है होती सबके ॥ काश ! इसी से 'वर्द्धमान' है, नाम रखा इनका सुन्दर । यथा नाम चरितार्थ हो गया, यह शिशु को महिमा गुरुतर ॥ जबसे जन्मा शिशु तबसे ही, कोई दुखद न बात हुई। शुमकर शकुन दिखाई पड़ते, होती बातें नई नई ॥ उधर बनों में प्रकृति सजीली, देखो तो हंसती-सी है । क्था शिशु जन्म-प्रभाव-प्रबल से, उसकी छवि बासन्ती हैं । पोत-हरित कुछ विविध रङ्ग के, हैं दुकल उसने धारे । पुष्षों के मुख से मुस्काती, हर्ष-प्रदर्शन ढंग न्यारे ॥ कुजों के अवगुण्ठन से क्या, इठलाती-सी पेख रहो । जन्मोत्सव की शोभा को, स्पृहा-भाव से देख रहो ?
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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