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________________ अभी तक दो रचनायें प्रकाशित की जा चुकी है। प्रस्तुत रचना उसका तीसरा पुष्प है। तीर्थकर भगवान महावीर जैनधर्मके संस्थापक नहीं हैं और न ही जैन धर्म हिंसक यज्ञ परम्परा के विरोध में उद्भुत हुआ है। यह दोनों ही मान्यतायें भ्रान्त और निराधार है । इस कल्पकाल में जैन धर्म की पुनर्स्थापना प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव में उस प्राचीन युग में की थी, जब मन्तिम मनु नाभिराय इस संसार को सुशोभित कर रहे थे । उनके पश्चात कालान्तर से २३ तीर्थकर और हुए, जिनमें सर्व अन्तिम भगवान महावीर थे। उन्होंने अपने समय की प्रावश्यकतानों को लक्ष्य करके जैन धर्म का पुनरोद्धार किया था। उन्हीं के प्रवचन और पावशे लोक के लिए विशेष उपकारी है । यद्यपि उनके दो तीन जीवन चरित्र हिंदों गद्य में प्रकाशित हो चुके हैं, परन्तुं हिंदी पत्र में एक प्रमाणित काव्य का प्रभाव खटकता था । चि०वीरेन्द्र प्रसाद जैन, बी०ए०० सार, साहित्यालंकार ने प्रस्तुते काव्यको रच कर उस प्रभाव को पूर्ति का सराहनीय प्रयास किया है। जिनेन्द्र के मुरणे प्रवाह गम्भीर हैं, उनका ठीक निर्वाह मानव बुद्धि से परे की वस्तु है। फिर भी उसके परिशीलनसे जो भावों में निर्मलता पाती है उसके १.मस्वरूप जो भो साहित्य प्रसून प्रस्फुटित हों वे सुदर पोर सुखद ही होते है । प्रतः प्रस्तुत रंचना स्वागतार्ह है। * भविष्य में मिशन अपनी साहित्यनिर्माण योजना को श्रीमान् पौर श्रीमान सहयोगियों की समुदार सहकारिता के बल पर ही सम्पन्न करने की प्राणा रखता है। विश्वास है, मिशन को पूर्ण सहयोग प्राप्त होगा। विनोत्अलीगंज (एटा) । हिताहर . १८.४.५६ ) (प्रथम संस्करण से) मानरेरी संचालक सविन मिसन
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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