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________________ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव ३६ मृदु सङ्गोत सुरीले स्वर भी, निकल रहे सुर वाद्यों से॥ और उधर सौधर्म इन्द्र का, हुआ प्रकम्पित सिंहासन । लगा सोचने अवधिज्ञान से, कम्पित होने का कारण ॥ भासा सहसा ऐसा उसको, वसुधा के शुभ वक्षस पर । अपने पुण्यों को सञ्चित कर, हुए अवतरित तीर्थङ्कर ॥ सीमा लांघा अमित मोद भी, हर्षातिरेक-सा उसे हुआ । क्षणभर की भी देर न करके, चलने को तैयार हुआ ॥ प्रा पहुंचा वह कुण्डग्राम को, __ सीमा में ले निज परिकर । त्रिसला-सुत के जन्म-स्थान पर, शची साथ पहुंचा सत्वर । देखा जब नवजात पुत्र तो, तृप्त न इन्द्र हुआ स्वर्गिम। शिशु कमनीय रूप लखने को, किए सहन नेत्र कृत्रिम ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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