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________________ ३७ द्वितीय सर्गः जन्म-महोत्सव बोला वह, 'भू-शशि दर्शन का, शुभ सुयोग अपना होगा।' उधर नगर की निकटवर्तिनी, प्रकृति सलौनी है हंसती । लगता कोई बात निराली, __ होने को क्या यह कहती ! धीरे-धीरे - प्राची-तट पर, अरुणिम ऊषा मुस्काई। अनुपम अरुणोदय हो निकला, तरुण दिव्य प्राभा आई ॥ चिर प्राह्लाद आज ऊषा में, __चरम-बिन्दु सुन्दरता का। लो, क्या हो निकला मृदु कम्पन, उसके लाल कपोलों का ॥ उसके अरुण अधर हिल निकले, बोल उठी वह क्या मानों। 'मेरे दिनकर ! अाज तुम्हारे, साथ उदय होगा जानों। पृथ्वी पर 'जाज्वल्यमान रवि', ज्ञानालोक दिव्य जिसका। ध्वस्त करेगा निखिल विश्व में, घन प्रसार मिथ्या-तम का ॥'
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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