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________________ प्रथम सर्ग पूर्वाभाष 'इस स्वप्न शृङ्खला में सुरत्न अवलोके । 'इनका आशय शुभ गुण होंगे उस सुत के॥' 'स्वप्नों की चित्रपटी पर अन्तिम सपना।' 'मैंने देखा था प्रचण्डाग्नि का जलना ॥' इसका मतलब नप ने आखिर बतलाया। वह पुत्र करेगा अपनी प्रबल तपस्या ॥ कर देगा जिससे भस्म कर्म का ईधन । यों प्राप्त करेगा केवल पद अक्षय धन ॥' सब के श्रीमुख से धन्य-धन्य ही निकला। यह धन्य बात है होगा पुत्र निराला ॥ यों क्रम-क्रम स्वप्नों का आशय सुन मानो। साकार हर्ष नाचने लगा है जानो ॥ कुछ सोच नपति ने कहा 'प्रकृति उपवन में। थी अमित मुदित क्या इस शुभ वृत्त कथन में ॥' साम्राज्ञी त्रिशला ने भी कुछ मुस्का कर । 'हाँ' हो जैसे कह दिया मौन भी रह कर ॥ तदनन्तर कोई दरबारी थिरता से । बोला 'उत्पीडित आज धरा हिंसा से ॥ श्रीमन स्वराज्य की सीमा में तो किंचित । कुछ शांति धर्म सा दिख पड़ता है निश्चित ॥ परलोक हो रहा है हिंसा में आगे। भौतिकता दिशि में लोग जा रहे भागे ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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