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________________ २५ प्रथम सर्गः पूर्वाभास बन्दन-बारों चित्रों से हुमा प्रलंकृत । ताजी सुरभित पुष्पों से भी यह सज्जित ॥ स्वच्छता स्वयम् ज्यों वास यहाँ है करती। प्रति वस्तु नियत उपयुक्त स्थान पर रहती ॥ इस राज-भवन के बहिद्वार पर प्रहरी। हैं खड़े कि जिन पर छाई निष्ठा गहरी।। हैं सावधान कर्तव्य कार्य में ये रत । क्या कर सकता कोईभी इनको बिचलित ॥ लो, लगा अभी दरबार पा गए कुछ जन । सुप्रतिष्ठित नागर जो सचमुच ही सज्जन ॥ मन्त्री, सेनापति अन्य कर्मचारी गण । मा गए सभी सम्राट सहित धीरज मन || जा पहुंचे जब अपने-अपने प्रासन पर । निज रत्न-जटित सिंहासन परभी नृपवर ।। वन्दीजन गाने लगे सुभग विरुदावलि । प्यों गुनन गुनन गुन गाती हो भ्रमरावलि ॥ इनके गाने के बीच वाद्य भी बजते । वादित्रों के स्वर रम्य रसीले लगते ॥ इनकी सरगम है परम मनोरम अनुपम । सङ्गीत स्वयम् साकार थिरकता क्रम-क्रम ॥ इस-गुण-गरिमा गायन के मधुरस क्रम में। आ गई स्वयम् साम्राज्ञी राज-भवन में ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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