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________________ प्रथम सर्गः पूर्वाभास इनके स्वागत में क्या खग भौंरे गाते ? क्या तुहिन-बिन्दु-कण इनको झलक रिझाते ? शीतल मलजय भी क्या इनका मन हरने ? चलता भावोंसा थिरक-थिरक सुख करने ॥ ये घूम रहीं सब ही हषित हो मन में। __कर रहीं हास परिहास मुदित जीवन में। मा गए इसी क्षण श्री सिद्धार्थ नृपति भी। हो गया मुदित-सा और मोद तत्क्षण ही। उन्नत ललाट नृप का प्रभाव प्रांखों में। भव्याकृति शोभित राजकीय वस्त्रों में ॥ सम्राट सम्मिलित हुये मनोरञ्जन में । सन गया हास-परिहास वचन-अमृत में॥ बोले नप, 'छाई आज अनोखी आमा । कोई विशेष क्या बात तमी अमिताभा ॥ जी चाह रहा मैं रहूं, निरखता यह छवि । दरबार-समय हो रहा और चढ़ता रवि ।। सम्राज्ञी ने भी कहा, 'प्रकृति मुखुरित-सी। मुकुलित सुन्दरता साथ लिए प्राई-सी ।। है समा रहा अति हर्ष हमारे मन में। लगता शुभकर कुछ बात हुई संसृति में। कुछ बातों को है मुझे प्रापसे कहना। दरबार समय हो गया, पापको जाना ।।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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