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________________ मंगल प्रभात की मधुर मांगलिक वेला। पल्लव-दल से सुरभित मलयानिल खेला। छाई प्राची में अलसाई प्रणाई। हो गई निशा की अब तो पूर्ण विदाई॥ हर दिशा हो रही अनुरजित इस क्षण में । है बिखर रहा अरुणिम प्रबीर अम्बर में । खिच रहे उषा की मृदुल तूलिका से प्रब। रमणीय दृश्य निर्भर, नगादि के नीरव ॥ बन गये गगन में इस विधि चित्र सलौने । हों मूर्तिमान ज्यों नव यौवन के सपने ॥ ये मन मोहन-से विविध रूप रंग लाते। क्रम-क्रम से स्वर्णिम हुये सभी हैं जाते। लो, नव प्राशा-सा सूर्य उदित हो पाया। उत्साह पुंज-सा किरण-निकर जो लाया । हो गया विश्व में स्वणिमांशु का प्रसरण । अणु-अणु ज्योतित-सा हुमा,प्रकृति-प्रमुदित-मन ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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