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________________ शुभ सन्देश और सम्मतियाँ इस कवि की रचना का अध्ययन करने से यह भी विदित होता है कि कवि को अपने भावों को व्यक्त करने के लिए भाषा एवं शब्दों का यथेष्ट वरदान मिला है। लेकिन शाब्दिक अध्य. यन करते समय उक्त काव्य में कुछ विचित्र शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। जैसे 'झोंके' के लिए 'भूके', 'पूछ' के लिए 'पूछ' प्रादि । वैसे भाषा की दृष्टि से कवि ने संस्कृत निष्ठ हिन्दी का प्रयोग अधिक किया है जिसके कारण भाषा कुछ दुरूह जैसी हो गई है किन्तु इससे प्रवाह एवं सरसता में किसी प्रकार की वाधा उपस्थित नहीं होती। स्थानीय वातावरण में प्राप्त शब्दों का प्रयोग भी कवि ने बड़े ठाट से किया है जैसे- 'कोदों' 'मांढ़' ( लगाना) कवि ने अपनी रचना को सचित्र बनाने का पूरा प्रयास किया है उससे ग्रन्थ की मोहकता काफी बढ़ गई है। छपाई और सफाई की दृष्टि से भी उक्त अन्य आकर्षक बन पड़ा है लेकिन पद्यों पर संख्या अंकित न होने के कारण उसके सन्दर्भो के उपयोग करने में कठिनाई होती है।" कविवर श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' रामपुर:____.. तीर्थकर भगवान महावीर' पुस्तक के लिए धन्यवाद पुस्तक बहुत सुन्दर और उपयोगी है । अापके प्रयत्नको सराहना करता हूं।" (पत्र ता० २६-५-५६) सुकवि धन्यकुमार जैन 'सुधेश, नागौद"" पुस्तक का प्रकाशन सुन्दर हुमा है । मापने उसे जो सर्वाङ्गोरप सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है वह प्रशंसनीय है। प्रापकी पुस्तक को मैंने प्रायोपान्त पढ़ा है। पुस्तक आपने श्रम पूर्वक लिखो है-इसमें सन्देह नहीं। पापका यह प्रयास प्रशंसनीय है। अभी इस दिशा में लिखने के लिए पर्याप्त क्षेत्र है। माशा है भावी कवि जो इस विषय पर अपनी लेखनी चलाना चाहेंगे, पापको कृति से पर्याप्त प्रेरणा प्राप्त करेंगे । मुझे मापकी इस सफलता से हार्दिक प्रसन्नता है। प्राशा है पाप
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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