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________________ १७२ तीर्थकर भगवान महावीर यह ज्ञानोदय का नवल प्रात, अज्ञान-प्रमा-तम सहज घात । सत् स्वणिमांशु का मृदु प्रसरण, वह चला ज्योति का नव प्रपात ॥ छाया प्रकाश अवनी तल पर, नूतन प्रामा-सी छिटक गई । खग-रव में कौन प्रभाती स्वर? श्रत-मधुर सुरीली तान नई ॥ संयोग अनौखा एक और, इस महावीर निर्वाण दिवस । श्री गौतम केवल-लक्ष्मी-युत, घातिया कर्म-गढ़ गया विनस ॥ भगवान बोर की संस्मति के, ताजी प्रकाश में भक्त-हृदय । श्रद्धा से भर-भर पाते हैं, कर रहे अर्चना सब सविनय ॥ स्वाभाविक ही कवि कण्ठों से, निस्सृत जिनवर प्रति भक्ति छंद ।। पावन स्वर-लहरी-सरिता में, सब मग्न नहाते मविक-वृन्द ।। गायक गढ़ अपने गीत रहे, प्रभु वोर-वन्दना में ललाम ।
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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