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________________ १६४ तोर्थङ्कर भगवान महावीर साढ़े उन्तिस वर्ष विचर प्रभु वीर मेघ-से । बरसाते बृष-सुधा रहे, निलिप्त वृत्ति से ॥ आर्य खण्ड के मगध विदेह, ग्राम वाणिज में। अङ्ग देश पोलाश तथा कौशल, कलिंग में ॥ वत्सदेश, हेमाङ्ग क्षेत्र, अस्मक प्रदेश में । मालव, सिन्धु, सुवीर क्षेत्र, पंचाल देश में ॥ सौर और गांधार तथा उस थल, दशार्ण में । दूर यवनाथ ति क्वाथ तोय सुरभीर तार्ण में ॥ कार्ण आदि देशों में भी, सर्वज्ञ वीर का । हुप्रा धर्म संचरण, हरण भव-भ्रमण-पोर का ॥ हुआ विशद् विस्तार, चतुर्विधि वीर संघ का। मुनि आर्यिका,श्राविका-श्रावक-ग्यारह गण का । सर्व प्रमुख गणधर गौतम जी, इन्द्रभ ति थे। अग्निभ ति थे द्वितीय, तीसरे वायुभ ति थे । और शेष शुचिदत्त, अचल, माण्डव्य, प्रकम्पन । मौर्य पुत्र, मेदार्य, सु-धर्म प्रभास साधु-गण ॥ सब मिल कर चौदह हजार जन, वीर संघ में। निशि दिन रहते रंगे हुए.-से, धर्म रंग में । कुछ यूनानी फणिक वणिक, भी हुए सुदीक्षित। वीर संघ में बने शिष्य, फारस कुमार वत ॥ जहाँ जहाँ भी गया वीर का, समवशरण शुभ । वहाँ सुलभ हो गया, धर्म सम्वर्षण दुर्लभ ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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