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________________ १३६ तीर्थकर भगवान महावीर कोप का आवेग उनको, कर न पाता उग्र । शान्त हृदय पयोध-सा होता न कुछ भी व्यग्र ॥ कोप-कारण भी न उनमें, उगा पाता क्रोध । क्रोध-अवसर पर सदा बे, हृदय लेते शोध ॥ सबल होकर भी न उनमें, दृष्टिगत आक्रोष । साधु जीवन का सु-सहचर, हैं सुभग सन्तोष ॥ अन्य लेकिन कोप के वश, उन्हें देते त्रास । पर न बदला-क्षोभ से वे, छोड़ते निश्वास ॥ द्वेष या अजान के वश पीटते जब लोग । पूर्व अघ-हत-समय सन्मति समझ धरते योग । महा भीषण यातनाए', क्रूर वज्र प्रहार । डिगा न पाते पर न उनको, दुष्ट कष्ट अपार ॥ मांगते किश्चित नहीं व, किसी से कुछ द्रव्य । गुरु अभावों में प्रशम व साधना यह दिव्य ।। भूख का प्रावेग हो या हो जटिल तमः प्यास । याचना फिर भी न करते, शांत सहते त्रास ॥ याचना करना बहुत ही दूर की है बात । मांगने के भाव तक को, लग न पाती घात ॥ पारणा में यदि कभी भी, हुमा पूर्ण अलाम । तो न व उद्विग्न मुख पर पूर्ववत अमिताभ ॥ अन्तराय दुकर्म का यह जानते परिणाम यों न कहते कुछ किसी से, अन्तरंग अकाम ॥
SR No.010568
Book TitleTirthankar Bhagwan Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendra Prasad Jain
PublisherAkhil Vishwa Jain Mission
Publication Year1965
Total Pages219
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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